गठबंधन में दरार !

क्या ये सिर्फ छोटी-मोटी झड़पें हैं या फिर यूपीए गठबंधन की दो सबसे बड़ी पार्टियों के बीच भविष्य में लंबी चलने वाली लड़ाई की शुरुआत. हालिया दिनों में ऐसा लग रहा है कि जैसे तृणमूल कांग्रेस एक धौंस जमाने वाले दबंग में तब्दील होती जा रही है.
सबसे पहले तीस्ता नदी समझौते को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने खारिज कर दिया. उसके बाद गुजरे हफ्ते तृणमूल के महासचिव और जहाजरानी राज्यमंत्री मुकुल राय ने वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को फोन करके पेट्रोल मूल्य वृद्धि पर अपना विरोध जताया. खबरों के अनुसार राय का कहना था, ’मूल्य बढ़ोतरी करने से पहले हम लोगों से पूछा जाना चाहिए था. हमारी पार्टी सरकार में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है.’ नई दिल्ली में मुकुल राय ने और कोलकाता में ममता बनर्जी ने यह भी स्पष्ट किया कि रसोई गैस के दामों में बढ़ोतरी स्वीकार नहीं की जा सकती.

पंचायत, नगर पालिका, विधानसभा और आम चुनावों के लगातार आते रहने से ममता यूपीए के ऐसे फैसलों से बिलकुल सहज नहीं होंगी

तीस्ता संधि का विरोध, रसोई गैस की मूल्य वृद्धि और भूमि अधिग्रहण विधेयक पर ममता बनर्जी का अड़ियल रुख (ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश न सिर्फ इस पर विचार-विमर्श के लिए कोलकाता गए बल्कि विधेयक का ड्राफ्ट तैयार होने का श्रेय भी उन्होंने राहुल गांधी के अलावा सिर्फ ममता बनर्जी को दिया), इन सभी के पीछे एक ही वजह नजर आती हैः आने वाले तीन साल में तृणमूल को दो बड़े चुनावों का सामना करना है. पश्चिम बंगाल में 2012 के पंचायत चुनाव वामपंथी राज के खत्म होने के बाद के पहले चुनाव होंगे. इनसे ममता को अपना ग्रामीण आधार मजबूत करने और सीपीएम को और भी कमजोर करने में मदद मिलेगी. साथ ही 2014 के लोकसभा चुनाव का भी तृणमूल अनुकूल फायदा उठाना चाहेगी. तृणमूल के एक सांसद के मुताबिक, ’2009 में प्रदेश में 42 सीटों का बंटवारा 2:1 के आधार पर हुआ था. अगली बार ममता दीदी कांग्रेस के लिए आठ से ज्यादा सीटें नहीं छोड़ना चाहेंगी.’

गणित के अनुसार, वाम मोर्चा कम से कम दस सीटें तो जीतेगा ही. तृणमूल कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ’इससे कम सीटें तो नहीं हो सकती हैं.’ वहीं तृणमूल का इरादा 25 का आंकड़ा छूना है (अभी इसके पास 19 लोकसभा सासंद हैं). इस समीकरण के हिसाब से प्रदेश में पहले से ही उपेक्षित महसूस कर रही कांग्रेस के लिए काफी कम संभावनाएं बचती हैं. ममता को लगता है कि भारत एक और त्रिशंकु लोकसभा की राह पर है. इसलिए वे अपना प्रभाव इतना बढ़ाना चाहती हैं कि बाद में उन्हें मोल-भाव करने में आसानी हो. साथ ही वाममोर्चे के कमजोर रहते वे जितना हो सके अपने को मजबूत बना लेना चाहती हैं.

क्या इसका मतलब यह है कि ममता जल्दी चुनाव चाहती हैं? उनके विश्वासपात्रों के अनुसार यह जरूरी नहीं है. पेट्रोल की कीमतों की बढ़ोतरी के एक दिन बाद ममता ने अपनी कोर ग्रुप की मीटिंग बुलाई थी. इसमें उन्होंने पॉलिसी से जुड़े मुद्दों पर उनसे मशविरा नहीं करने पर कांग्रेस की खिंचाई की थी. साथ ही उन्होंने कहा, ’हम लोगों को चुनावों के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.’ उनका ऐसा बयान कुछ लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर गया कि कहीं ममता जल्दी चुनाव कराने के पक्ष में तो नहीं हैं? मगर जल्द ही ममता के सहयोगियों ने इसे नकार दिया. मामले को तूल देने की बजाय उन्होंने कहा कि ममता तो जल्दी चुनाव होने की संभावना से ही चिंतित हैं. रेल मंत्री रहते हुए ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में 19 परियोजनाओं का उद्घाटन किया था जिसमें से 50 फीसदी परियोजनाएं कोलकाता और उत्तर और दक्षिण 24 परगना जैसे तीन जिलों में हैं जो तृणमूल के गढ़ हैं. एक पार्टी कार्यकर्ता के अनुसार, ’सारी परियोजनाएं 2012 या 2013 तक पूरी हो जाएंगी और दीदी उस मोर्चे पर कोई भी गड़बड़ी नहीं चाहती हैं.’
ममता मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी के आर्थिक फैसलों का भी विरोध कर रही हैं. रसोई गैस की मूल्य वृद्धि का विरोध करने के अलावा ममता ने विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाले मल्टी-ब्रांड रिटेल के खुलने का भी विरोध किया था. कुछ हफ्तों पहले जिस रिटेल में उदारीकरण संभव दिख रहा था अब उसे चुपचाप दफना दिया गया है. इसके अलावा, प्रणब मुखर्जी और ममता द्वारा चुने गए रेल मंत्री दिनेश तिवारी यात्री भाड़ा बढ़ाने को तैयार नहीं हैं. वित्त मंत्री की कोशिश है कि ट्रेन भाड़े को तर्कसंगत बनाया जाए. लेकिन ममता अपने कार्यकाल की तरह अभी भी ऐसा करने को तैयार नहीं हैं. उनकी चिंता है कि कहीं महंगाई का एक कारण उन्हें भी न बता दिया जाए जिससे वामपंथियों को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल जाएगा.

वित्त मंत्री और पश्चिम बंगाल सरकार एवं कांग्रेस के मध्यस्थ दोनों ही  रूपों में प्रणब मुखर्जी को तृणमूल की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है. तीस्ता प्रकरण और पेट्रोल की कीमतों के मुद्दे पर प्रणब को तृणमूल के मंत्रियों के तीखे बयान झेलने पड़े हैं. मगर वे अकेले कांग्रेसी मंत्री नहीं हैं जिनसे ममता की पार्टी ने दो-दो हाथ किए हैं. ममता बनर्जी मानती हैं कि कांग्रेस नहीं चाहती है कि वे सफल हों. उन्हें शक है कि कांग्रेस प्रदेश की परियोजनाओं को अनुमति देने में देरी करने जैसे अलग-अलग तरीके अपना कर पंचायत और आम चुनावों में अपना प्रभाव कायम करना चाहती है.

पश्चिम बंगाल को जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन से निधि मिलनी है. मगर इस तरह की आर्थिक मदद हमेशा कुछ शर्तों के साथ आती है. ऐसी ही एक शर्त है कि पीने के पानी के लिए बुनियादी ढांचे को मजबूत करने से पहले पानी पर टैक्स बढ़ाया जाए. मगर ममता इसके खिलाफ हैं और अपने इस रुख से वे शहरी विकास मंत्रालय – जिसके मंत्री कमलनाथ हैं – को भी अवगत करा चुकी हैं. इस सबके बीच तृणमूल के सांसद सोगता राय फंसे हुए हैं जो शहरी विकास मंत्रालय में राज्यमंत्री हैं. सोगता से तृणमूल को उम्मीद है कि वे पश्चिम बंगाल को एक बार अपवाद मान कर उसे इस मामले में छूट दे दें. ममता का कहना है कि इस तरह के प्रावधान और राज्यों पर लागू किए जा सकते हैं पर पश्चिम बंगाल पर नहीं. एक कांग्रेस सांसद सवाल करते हैं, ‘मगर यह कैसे मुमकिन है?’

ममता के लिए एक और महत्वपूर्ण परियोजना है कोलकाता में स्थित हुगली नदी के किनारे को नये सिरे से विकसित करने की. इसका जिक्र तृणमूल के चुनाव घोषणापत्र में भी था. इसको तीन विभाग मिल कर पूरा करेंगे: कोलकाता नगर निगम, जो तृणमूल कांग्रेस के पास हैं, कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट, जो जहाजरानी मंत्रालय के अधीन आता है और जिसके राज्यमंत्री तृणमूल के मुकुल राय हैं, और रेलवे मंत्रालय, जिसके मंत्री तृणमूल के दिनेश त्रिवेदी हैं. मगर इस परियोजना पर सेना को आपत्ति है क्योंकि वह इलाका पूर्वीय कमान में आता है. इस मसले पर पश्चिम बंगाल सरकार चाहती है कि रक्षा मंत्री एके एंटनी हस्तक्षेप करें मगर उन्होंने अभी तक इस मसले को टाला हुआ है. उधर, तृणमूल को लगता है कि यह जान-बूझकर किया जा रहा है और कांग्रेस इस मामले में अड़ियल रुख अपना रही है.

पंचायत, नगर पालिका, विधानसभा और आम चुनावों के नियमित अंतराल में आते रहने से साफ है कि ममता बनर्जी यूपीए के ऐसे फैसलों से बिलकुल भी सहज नहीं होगी जिसका विपरीत असर उनकी पार्टी पर पड़े. वहीं कांग्रेस को डर है कि तृणमूल वर्चस्व की इस लड़ाई में कहीं उसे पश्चिम बंगाल से बाहर ही न कर दे. इसी का परिणाम है दोनों के बीच विश्वास की यह कमी जिसकी वजह से यूपीए की पहले से बढ़ी परेशानियां और ज्यादा बढ़ रही हैं.