मुश्किल में परिवार

आजाद भारत पर सबसे अधिक राज गांधी-नेहरू परिवार ने किया है. मोतीलाल नेहरू इस परिवार के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने राजनीति में कदम रखा था. उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया और आजादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. जब देश आजाद हुआ तो नेहरू इस देश के पहले प्रधानमंत्री बने. इस परिवार की राजनीतिक परंपरा को आगे बढ़ाने का काम उनके बाद इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने किया. बोफोर्स घोटाले में राजीव गांधी पर लगे आरोपों के अलावा इस परिवार पर भ्रष्टाचार का और कोई सीधा आरोप नहीं लगा. लेकिन बीते दिनों जब इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने सोनिया गांधी के दामाद और प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए तो एक तरह से पूरा गांधी परिवार भी सवालों के घेरे में आ गया. रॉबर्ट कोई ऐसे-वैसे कारोबारी नहीं हैं. यह उनकी पहचान भी नहीं है. उन्हें तो लोग देश के प्रथम राजनीतिक परिवार के दामाद के तौर पर ही जानते हैं. इसलिए आरोप लग रहे हैं कि विभिन्न प्रदेशों की सरकारों ने वाड्रा को फायदा पहुंचाने और उनसे जुड़ी कुछ गड़बड़ियों को छिपाने के लिए के लिए जो संभव हो सकता था, किया.

जमीन के खेल में गड़बड़ी के सीधे आरोप कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी पर भी लग रहे हैं. कई राजनीतिक जानकार मानते हैं कि वाड्रा विवाद से भारतीय राजनीति में गांधी परिवार की चमक फीकी पड़ने की प्रक्रिया को गति मिल गई है क्योंकि वाड्रा का मामला ऐसा नहीं है जो कुछ दिनों में खत्म हो जाए. गांधी परिवार और कांग्रेस पर हमला करने के लिए विपक्षी दल इसका इस्तेमाल अपनी सुविधा के अनुसार करते रहेंगे. यह एक तथ्य है कि आज गांधी परिवार के तीनों स्तंभ मुश्किल में हैं. सोनिया गांधी बीमार हैं. उनकी बीमारी को खुद उनके परिवार और पार्टी ने रहस्य बना रखा है. कई पत्र-पत्रिकाओं में यह प्रकाशित हुआ है कि अमेरिका के जिस अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है वह कैंसर की चिकित्सा करने वाला अस्पताल है. लेकिन न तो परिवार ने और न ही पार्टी ने इस रहस्य पर से पर्दा हटाया है. ऐसे में वे कब तक और कितनी सक्रिय रहेंगी, इसे लेकर जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं. जानकारों के मुताबिक राहुल गांधी न सिर्फ चुनावी राजनीति में बल्कि हर मोर्चे पर नाकाम रहे हैं. पूरा जोर लगाने के बावजूद राहुल गांधी का जादू उत्तर प्रदेश और उससे पहले बिहार में नहीं चल पाया. उन्हें वहां के लोगों ने खारिज कर दिया. सरकार में जिम्मेदारी लेने को लेकर उनका बार-बार कतराना भी उनकी क्षमताओं पर सवाल खड़े कर रहा है. उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले तक कांग्रेस के ‘ट्रंप कार्ड’ के तौर पर पेश की जा रही प्रियंका गांधी न सिर्फ रायबरेली और अमेठी में नाकाम रही हैं बल्कि अपने पति रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ लग रहे नए-नए आरोपों की वजह से सवालों के घेरे में हैं. वाड्रा का मामला ऐसा है कि चाहकर भी प्रियंका इससे पीछा नहीं छुड़ा सकतीं. राजनीति में आने पर ना-ना की औपचारिकता

निभाने वाली प्रियंका ने भी अब तक कुछ ऐसा नहीं किया जिससे लगे कि उनके पास देश को लेकर कोई सपना है.
ऐसे में अब कुछ लोग यह सवाल उठाने लगे हैं कि क्या भारतीय लोकतंत्र के इस राजपरिवार का सूरज अस्त हो चला है? क्या कांग्रेस को बार-बार संजीवनी देकर चलायमान रखने वाले परिवार को आज खुद ही किसी संजीवनी की जरूरत है? या फिर 90 के दशक में उठ रहे ऐसे ही सवालों के बीच सोनिया गांधी ने जिस तरह से परिवार की वापसी कराई थी, जिस तरह से इमरजेंसी के बाद बिलकुल हाशिए पर चली जाने वाली इंदिरा गांधी सिर्फ दो साल में ही बेहद मजबूत होकर उभरी थीं, क्या वैसा ही कुछ होने वाला है. इन सवालों के जवाब में देश की राजनीति का भविष्य छिपा हुआ है. इन्हें समझने के लिए जरूरी है कि गांधी परिवार के तीनों वर्तमान स्तंभों की सियासत को बारी-बारी से जाना जाए.

सोनिया गांधी

तारीख 14 मार्च, 2008. स्थान सोनिया गांधी का सरकारी निवास यानी 10 जनपथ. मौका था सोनिया गांधी के सक्रिय राजनीति में आने के दस साल पूरे होने का. 1998 में जब सोनिया गांधी को कांग्रेस में सक्रिय करने के लिए काफी मान-मनौव्वल के बाद पार्टी के कुछ नेताओं ने राजी किया था तो इटली में जन्मी सोनिया के मन में भी अपने भविष्य को लेकर संदेह रहे होंगे. लेकिन राजनीति में आने के छह साल के अंदर देश ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने का अवसर दिया जिसे उन्होंने ठुकराया. कांग्रेस ने जहां इसे त्याग बताकर प्रचारित किया तो विपक्ष ने इसे विदेशी मूल के मुद्दे का दबाव बताया. जिस दिन सोनिया गांधी के राजनीति में सक्रिय होने के दस साल पूरे हुए उस दिन उन्हें बधाई देने की औपचारिकता निभाने के लिए उनके आवास पर न सिर्फ कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की होड़ दिखी बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री भी वहां पहुंचे. 2004 में खुद कुर्सी छोड़कर सोनिया गांधी ने ही मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनाया था. सरकार में किसी पद पर रहे बगैर अगर किसी नेता को बधाई देने के लिए अगर प्रधानमंत्री पहुंचते हैं तो इससे उसके प्रभाव का अंदाजा लगाया जा सकता है.

लेकिन आज सोनिया गांधी कई मोर्चे पर संघर्ष करती हुई दिख रही हैं. इनमें सबसे पहली बात उनकी सेहत की. पिछले साल जब सोनिया गांधी अपना इलाज कराने के लिए अचानक अमेरिका गईं तो उन्होंने कांग्रेस के संचालन के लिए चार लोगों की एक समिति बनाई. इसके बाद सोनिया गांधी की बीमारी को लेकर तरह-तरह की बातें चलीं. पार्टी ने इसे सोनिया गांधी का निजी मामला बताते हुए इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी. दुनिया की चर्चित पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने अपनी एक रिपोर्ट में यह बताया कि सोनिया गांधी जिस अस्पताल में इलाज करा रही हैं, वहां कैंसर का इलाज होता है. इस अस्पताल का नाम है- स्लोन केटरिंग कैंसर सेंटर. फिर भी न तो पार्टी ने कुछ कहा और न ही गांधी परिवार ने. सियासी गलियारों में यह बात भी चली कि अब सोनिया गांधी उस तरह से सक्रिय नहीं हो पाएंगी जिस तरह से वे पहले थीं. उनकी बीमारी को लेकर न सिर्फ बाहर बल्कि पार्टी में भी भ्रम बना हुआ है.

दो राज्यों में कांग्रेस के प्रभारी की भूमिका निभा रहे एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कहते हैं, ‘अनिश्चय के बावजूद सोनिया जी की उपस्थिति भर से पार्टी के लोगों को उत्साह मिलता है. पार्टी में कोई भी लाख दावे करे लेकिन अब भी सबसे अधिक अपील सोनिया जी या उनके बच्चों की ही है.’ वे आगे कहते हैं, ‘उनकी मुश्किल सिर्फ सेहत के स्तर पर ही नहीं हैं. उनके लिए चिंता की सबसे बड़ी वजह राहुल गांधी की नाकामी है. तमाम कोशिशों के बावजूद राहुल अब तक अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे हैं. पहले जहां सिर्फ सोनिया गांधी को पार्टी चलाने की चिंता करनी होती थी वहीं अब उन्हें सरकार को टिकाए रखने के काम भी शामिल होना पड़ रहा है. जब तक प्रणब मुखर्जी सरकार में थे तब तक सहयोगियों की शिकायतों को सुलझाने और उनके साथ सुलह-सफाई के काम से सोनिया मुक्त थीं.’

सोनिया गांधी की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होतीं बल्कि उनकी अगुवाई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) का प्रदर्शन भी सवालों के घेरे में है. संप्रग की पहली सरकार में रोजगार गारंटी योजना और सूचना का अधिकार लागू करवाने का श्रेय एनएसी को गया था. इसे सरकार के बजाए सोनिया गांधी की निजी सफलता कहकर प्रचारित किया गया था. लेकिन संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान इस समिति ने ऐसा कोई काम नहीं किया है. ऐसे में अब एनएसी की प्रासंगिकता को लेकर भी सवाल खड़े रहे हैं. एनएसी पर सवाल उठने का मतलब यह भी निकलता है कि सोनिया गांधी का प्रदर्शन भी सवालों के घेरे में है. क्योंकि सोनिया गांधी सरकार में मंत्री नहीं हैं और उनके पास पार्टी अध्यक्ष के अलावा यही एक सार्वजनिकजिम्मेदारी है.

बतौर पार्टी अध्यक्ष भी सोनिया गांधी का प्रदर्शन पिछले दो-तीन साल में ऐसा नहीं रहा जिसे उत्साहजनक कहा जा सके. विधानसभा चुनावों में पार्टी को लगातार हार का सामना करना पड़ा. राष्ट्रीय स्तर पर भी देखा जाए तो पार्टी नया नेतृत्व उभारने में नाकामयाब रही. पार्टी और सरकार के शीर्ष पद के लिए तैयार किए जा रहे राहुल गांधी नाकाम साबित हो रहे हैं. पार्टी के प्रतिनिधित्व के मामले में अब भी वही पुराने चेहरे गिनाए जा रहे हैं. पार्टी में जो नए लोग उभरे उनमें भी अधिकांश नेता राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों से हैं. बतौर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी  ने उस आम आदमी  को पार्टी में स्थापित नहीं किया जिसके साथ वे कांग्रेस के हाथ  के होने का दावा करती हैं. लेकिन इन सबके बावजूद पार्टी में सोनिया गांधी के नेतृत्व को लेकर कोई सवाल उठने की संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखती. कांग्रेस और सरकार में अहम पदों पर रहे मणिशंकर अय्यर कहते हैं, ‘गांधी परिवार कांग्रेस को जोड़े रखने का काम करता है. जैसे ही पार्टी से परिवार की दूरी  बढ़ेगी . वैसे ही पार्टी का बिखरना भी शुरू हो जाएगा.’

2009 के बाद से कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार लगातार विवादों में है. कुछ महीने गुजरते नहीं कि कोई न कोई बड़ा घोटाला सामने आ जाता है. केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंत्रियों को इस्तीफा तक देना पड़ा है. अब भी विपक्ष कुछ मंत्रियों के इस्तीफे की मांग लगातार कर रहा है. जाहिर है कि जब सरकार के किसी अच्छे काम का श्रेय सोनिया गांधी को मिलता है तो फिर सरकार की नाकामी को भी लोग उनसे ही जोड़कर देखेंगे. संप्रग सरकार में भ्रष्टाचार नहीं रोक पाने को कई जानकार सोनिया गांधी की नाकामी भी बताते हैं. ताजा मामला रॉबर्ट वाड्रा का है. वाड्रा सोनिया गांधी के दामाद हैं और उन पर एक कांग्रेस शासित प्रदेश में वहां की एक ऐसी सरकार के समर्थन से गड़बडि़यां करने के आरोप हैं जिसके मुखिया की कुर्सी का भविष्य गांधी परिवार के हाथ में है.

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा का मानना है कि सत्तासीन लोगों को प्रभावित कर सकने की क्षमता रखने वाले हर व्यक्ति को हर तरह के शक-शुबहे से परे होना चाहिए. मगर वाड्रा शक के घने कोहरे में हैं जिसके छींटे गांधी परिवार तक पर पड़ रहे हैं.
 कई लोग मानते हैं कि आज सोनिया जिन मुश्किलों से घिर गई हैं उनके लिए उनके गलत राजनीतिक फैसले जिम्मेदार हैं. इस बारे में विकिलीक्स के 2007 के एक केबल में कहा गया, ‘सोनिया गांधी अवसर गंवाने का कोई भी मौका नहीं छोड़तीं.’ सोनिया के सलाहकारों को लेकर भी कई तरह के सवाल उठते हैं. गुजरात के अहमद पटेल सोनिया के राजनीतिक सलाहकार हैं. जनार्दन द्विवेदी और एके एंटोनी को भी उनके करीब माना जाता है. लेकिन सोनिया गांधी की जीवनी लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘वे चैन से रहना पसंद करती हैं. भले ही लोग कुछ कहें लेकिन अब भी उनके सबसे करीबी सलाहकारों में राहुल और प्रियंका प्रमुख हैं.’ इसका मतलब यह कि अवसर गंवाने के लिए सोनिया अकेले जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि राजनीतिक अवसर को पहचानने में राहुल और प्रियंका भी अपरिपक्व हैं.

राहुल गांधी

रॉबर्ट वाड्रा का मामला उजागर होने के बाद राहुल गांधी पर भी आरोप लगा कि उन्होंने भी पलवल में औने-पौने दामों में जमीन खरीदी. हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे ओमप्रकाश चौटाला ने बाकायदा प्रेस वार्ता करके राहुल पर आरोप लगाया. कहा गया कि उन्होंने 2008 में पलवल में डेढ़ लाख रुपये प्रति एकड़ की दर से साढ़े छह एकड़ जमीन खरीदी जबकि उस जमीन की सरकारी दर आठ लाख रुपये प्रति एकड़ थी. हालांकि ऐसा करना किसी अपराध की श्रेणी में नहीं आता लेकिन जब वाड्रा पर कई तरह के जमीन आदि से संबंधित आरोप हों तब उनके साथ ही राहुल का जमीन खरीदना चौटाला सरीखे कई लोगों को उनके खिलाफ बोलने का मौका दे देता है.

कांग्रेस और सरकार में अहम पदों पर रहे मणिशंकर अय्यर एक घटना बताते हैं, ‘1989 की बात है. राजीव गांधी के साथ मैं भी दक्षिण भारत में चुनाव प्रचार कर रहा था. अक्सर रात को देर हो जाती थी पर अगले दिन सुबह तीन-चार बजे ही आगे की सभाओं की तैयारी के लिए उठना पड़ता था. हमारे साथ राहुल गांधी भी थे. उस वक्त वे काफी कम उम्र के थे. राहुल ने देखा कि कैसे उनके पिता को ठीक से सोने का वक्त नहीं मिलता. यह सब देखकर एक दिन राहुल ने राजीव गांधी से कहा – वे दिन बहुत अच्छे थे जब आप इंडियन एयरलाइंस के पायलट थे और आप राजनीति में शामिल नहीं थे. राहुल ने अपने पिता से कहा कि हमें फिर से उसी जिंदगी में लौट जाना चाहिए. जवाब में राजीव गांधी ने राहुल से कहा कि अब मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अब मुझे देश की जनता पर भरोसा है, इसलिए लौटने का सवाल ही नहीं उठता. राजनीति में राहुल गांधी की सक्रियता की वजह भी यही है कि जिस तरह से राजीव गांधी को देश के लोगों पर भरोसा था उसी तरह का भरोसा राहुल को भी है.’

लेकिन पिछले दस साल की राहुल गांधी की राजनीतिक सक्रियता को देखते हुए यह सवाल उठता है कि राहुल को तो लोगों पर भरोसा है लेकिन क्या लोगों को भी राहुल पर भरोसा है. कहने की जरूरत नहीं कि चुनावी राजनीति बहुत निर्मम होती है. यह कभी किसी को सर-माथे बैठाती है तो अगले ही चुनावों में उसे पूरी तरह से धराशयी भी कर देती है. इसलिए अगर चुनावी राजनीति के पैमाने पर कांग्रेस के युवराज को कसें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका अब तक का प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा है. राहुल ने अपनी चुनावी नाकामी की सबसे बड़ी कहानी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में लिखी. तमाम दांव-पेंच के बावजूद वे कांग्रेस की सीटों का आंकड़ा 22 से बढ़ाकर 28 पर ही ले जा पाए. दूसरे राज्यों में भी ऐसा ही हाल रहा. बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान भी राहुल ने जमकर प्रचार किया था लेकिन कांग्रेस नौ सीटों से घटकर चार पर ही सिमट गई.

राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में नए राजनीतिक प्रयोगों की बात कर रहे थे. लेकिन उनकी कथनी और करनी का फर्क कुछ लोगों को इस बात में नजर आया कि उन्होंने न सिर्फ दूसरे दलों से खारिज किए गए असंतुष्टों को टिकट दिया बल्कि ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा का परिचय बढ़ई और विश्वकर्मा के रूप में कानपुर की एक जनसभा में कराया. इस तरह से उन्होंने ‘नई’ की बजाय जात-जमात की ही राजनीति का लाभ लेने की कोशिश की. इससे ऐसे लोगों को काफी निराशा हुई जो राहुल से यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि वे राजनीति को बदलने में अहम भूमिका निभा सकते हैं. राहुल ने उत्तर प्रदेश में अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था. उन्होंने चुनाव से तकरीबन ढाई साल पहले से प्रदेश के अलग-अलग इलाकों का दौरा करना शुरू कर दिया था. उनकी सभाओं में भीड़ भी उमड़ती थी. इसी भीड़ को देखकर न सिर्फ कांग्रेस के रणनीतिकार मुगालते में रहे बल्कि कहीं न कहीं राहुल को भी भ्रम रहा होगा. लेकिन नतीजों ने उनका भ्रम तोड़ दिया और यह संकेत दे दिया कि भले ही कांग्रेस को गांधी परिवार के युवराज से काफी उम्मीदें हों लेकिन आम लोगों में युवराज उम्मीद जगाने में नाकाम रहे हैं.

बतौर सांसद उन्होंने आठ साल से अधिक का वक्त गुजारा है. लेकिन अब तक संसद में कोई ऐसी बात नहीं कही है जिससे लगे कि उनके पास देश के भविष्य को लेकर कोई योजना है. लोकपाल के मसले पर जब काफी हो-हल्ला हुआ और उनकी चुप्पी पर हर तरफ से सवाल खड़े किए जाने लगे तो उन्होंने जो लिखा हुआ भाषण लोकसभा में पढ़ा उसमें भी ऐसा कुछ नहीं था जिसके आधार पर उनमें कोई बड़ी संभावनाएं तलाशी जाए. उन्होंने लोकसभा के अपने भाषण को ‘गेमचेंजर’ बताया था और अपने भाषण में लोकपाल को संवैधानिक संस्था का दर्जा देने की बात की थी. लेकिन आज उन्हीं की सरकार लोकपाल को लेकर हीलाहवाली कर रही है. लोकपाल को शक्तियां देने के मामले पर सरकार अक्सर आना-कानी करते दिखती है.

राहुल गांधी की नाकामी यहीं नहीं थमती. जब उन्होंने युवा कांग्रेस की बागडोर संभाली थी तो इसे लोकतांत्रिक बनाने की बात कही थी. लेकिन उनकी यह योजना भी बुरी तरह नाकाम रही. युवा कांग्रेस के चुनावों में धांधली की कई खबरें मीडिया में आईं. वहां अब भी वही चुनावी प्रक्रिया काम कर रही है जो राहुल गांधी के आने से पहले कर रही थी. युवा कांग्रेस के चुनावों में जीत हासिल करने के मकसद से राहुल गांधी के पर्यवेक्षक के अपहरण की एक घटना भी सामने आ चुकी है. राहुल गांधी की एक बड़ी नाकामी यह भी है कि उन्होंने युवा नेतृत्व के नाम पर पार्टी में जिन लोगों को तवज्जो दी उनमें से ज्यादातर सियासी घरानों के नेता हैं. कहने को तो राहुल यह कहते रहे कि वे कांग्रेस को देश के आम युवाओं से जोड़ना चाहते हैं लेकिन जब पार्टी में कोई ओहदा देने या चुनाव लड़ाने की बात आई तो वे घरानों के

दायरे से बाहर नहीं निकल पाए. अपने गैरजिम्मेदाराना बयानों को लेकर भी राहुल गांधी लगातार विवादों में रहे हैं.
राहुल की नाकामी की एक बड़ी वजह उनकी सलाहकारों की मंडली भी है. भले ही वे अपने सूबे में पूरी तरह से असफल हों मगर दिग्विजय सिंह को सोनिया गांधी ने राहुल की राजनीति को चमकाने के काम पर उत्तर प्रदेश में लगा दिया. लेकिन दिग्विजय यहां भी कामयाब नहीं हुए. उल्टे उनकी सलाह पर भरोसा करने वाले राहुल गांधी की क्षमता पर भी सवाल उठाए जाने लगे. दिग्वजय के अलावा राहुल गांधी की सलाहकारों की मंडली में दो तरह के लोग हैं. एक तो वे युवा नेता हैं जो कांग्रेस की सियासी घरानों की नुमाइंदगी करते हैं. इनमें सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दीपेंद्र सिंह हुड्डा प्रमुख हैं. वहीं दूसरी तरफ वे लोग हैं जो विदेशों से डिग्री लेकर आए हैं और लैपटॉप व आंकड़ों के जरिए देश की राजनीति को कांग्रेस के पक्ष में मोड़ने के गुलाबी सपने राहुल गांधी को दिखाते रहते हैं. राहुल गांधी की सलाहकार मंडली हर मोर्चे पर अब तक नाकाम रही है. इसके बावजूद अगर राहुल इससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं है तो कुछ लोगों के मुताबिक यह उनकी अक्षमता को भी दिखाता है.

बार-बार यह चर्चा होती है कि राहुल गांधी को सरकार में कोई अहम जिम्मेदारी लेनी चाहिए. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी उन्हें अपने कैबिनेट में शामिल करने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं. लेकिन इसके बावजूद राहुल गांधी पता नहीं किस अनजाने भय की वजह से सरकार में शामिल नहीं होते हैं. 28 अक्टूबर को हुए मंत्रिमंडल विस्तार से पहले भी उनके इसमें शामिल होने-न होने को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म था. लेकिन वे इस बार भी मंत्री नहीं बने. प्रधानमंत्री ने एक और बार इस पर अफसोस जताया. हालांकि इस बारे में कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘पार्टी में उनकी क्षमता को लेकर कोई सवाल ही नहीं है. इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी को लेकर भी लोग सवाल उठाते थे लेकिन इन तीनों ने राजनीति में अपना लोहा मनवाया. इसलिए पार्टी को ऐसी ही उम्मीद राहुल से भी है.’ क्या पार्टी के सभी नेता ऐसा ही सोचते हैं? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘नहीं, कुछ लोगों में राहुल की क्षमताओं को लेकर शंका है लेकिन कोई यह बात बोलना नहीं चाहता.’ कुछ ऐसी बात विकिलीक्स के 2007 के एक केबल से भी उजागर हुई थी. इसमें बताया गया था कि वरिष्ठ राजनीतिक जानकार राहुल के गलत कदमों की कोई वाजिब वजह नहीं देखते और कांग्रेस के कई लोग उन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य नहीं मानते. हालांकि राशिद किदवई अलग राय रखते हैं, ‘कुछ लोगों को शंका हो सकती है लेकिन अभी की स्थिति में पार्टी में इस बात पर सहमति है कि अगला आम चुनाव राहुल के नेतृत्व में ही लड़ना चाहिए. पार्टी के पास और कोई विकल्प नहीं है. मुझे लगता है कि राहुल सब संभाल लेंगे क्योंकि पार्टी में अब भी गांधी परिवार के प्रति वफादारी का भाव बरकरार है.’

प्रियंका गांधी

कांग्रेस की ओर से ‘ट्रंप कार्ड’ के तौर पर पेश की जा रही प्रियंका गांधी की राजनीतिक संभावनाओं पर ग्रहण लगाने का काम उनके पति रॉबर्ट वाड्रा पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों ने कर दिया है. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अब जब भी वे लोगों के बीच वोट मांगने जाएंगी तो लोग रॉबर्ट वाड्रा की वजह से उन्हें भी संदेह की निगाह से देखेंगे. इसकी पर्याप्त वजहें भी हैं. आरोपों के घेरे में आई रॉबर्ट वाड्रा की एक कंपनी ब्लू ब्रिज ट्रेडिंग के निदेशक मंडल में प्रियंका गांधी भी शामिल रही हैं. कंपनी के निदेशक मंडल में प्रियंका 2007 के नवंबर महीने से लेकर 2008 के जुलाई महीने तक रही हैं. इसलिए प्रियंका यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकती हैं कि अपने पति के कारोबार के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है. जाहिर है कि रॉबर्ट वाड्रा पर तरह-तरह के आरोप लगने के बाद प्रियंका गांधी के लिए चुनावी राजनीति का सफर आसान नहीं होने जा रहा है. वाड्रा का मामला ऐसा है कि इसका इस्तेमाल विपक्षी दल खास तौर पर उस वक्त सबसे अधिक करेंगे जब प्रियंका राजनीति में सक्रिय होने की कोशिश करेंगी. राशिद किदवई कहते हैं, ‘अगर रॉबर्ट वाड्रा के मामले में प्रियंका सामने आकर स्थिति साफ करती हैं तो इससे न सिर्फ उन्हें फायदा होगा बल्कि पार्टी को भी लाभ मिलेगा.’

राजनीतिक सक्रियता के मामले में प्रियंका ने अब तक खुद को अपनी मां सोनिया गांधी के निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली और अपने भाई राहुल गांधी के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी तक ही सीमित रखा है. 2012 के विधानसभा चुनावों में भी इन दोनों जिलों में चुनाव अभियान की कमान प्रियंका गांधी ने ही संभाली थी. प्रचार के दौरान प्रियंका अपने दोनों बच्चों को लेकर भी पहुंची थीं. उनके पति रॉबर्ट वाड्रा ने भी मोटरसाइकिल से प्रचार किया था. प्रियंका ने बार-बार यह दोहराया कि दोनों जिलों की सभी 10 विधानसभा चुनावों पर जीत हासिल करने के लक्ष्य के साथ कांग्रेस चुनाव मैदान में है. लेकिन इन दस में से सिर्फ दो सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जीत पाए. रायबरेली में जहां कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला वहीं अमेठी में सिर्फ दो सीटों पर  पार्टी को जीत हासिल हुई. इन दो जिलों के चुनावी नतीजों ने यह साबित किया कि कांग्रेस की ओर से ‘ट्रंप कार्ड’ बताई जा रही प्रियंका गांधी को जमीनी स्तर पर उस तरह का जनसमर्थन नहीं मिल रहा जिसकी बात दिल्ली में बैठकर कई कांग्रेसी नेता कर रहे हैं.

गांधी परिवार के गढ़ में कांग्रेस की दुर्गति को कई तरह से देखा गया. युवाओं के एक बड़े वर्ग में खासे लोकप्रिय उपन्यासकार चेतन भगत ने ट्विटर पर लिखा, ‘कांग्रेस का रायबरेली और अमेठी में हार जाना कुछ ऐसा ही है जैसे चेन्नई में रजनीकांत की फिल्म का पिट जाना.’ गांधी परिवार के लिए अमेठी और रायबरेली का कितना महत्व है इसे समझने के लिए इतिहास में झांकना जरूरी है. बात 1921 की है. उस वक्त जवाहर लाल नेहरू 32 साल के थे. तब नेहरू परिवार इलाहाबाद के आनंद भवन में रहता था. उसी साल अमेठी और रायबरेली में स्थानीय जमींदारों के खिलाफ किसानों का प्रदर्शन शुरू हुआ. मोतीलाल नेहरू ने जवाहरलाल नेहरू को वहां मामला शांत करने के लिए भेजा. मोतीलाल नेहरू देश के प्रख्यात वकील थे और अमेठी के राजा उनके मुवक्किल थे. जवाहर लाल अपने पिता के निर्देश पर वहां गए और राजा की बजाय किसानों का साथ दिया. माना जाता है कि उन्होंने अपना पहला राजनीतिक भाषण भी यहीं दिया. उस समय से इस इलाके से जुड़ा परिवार का संबंध अब तक चला आ रहा है. जब 1930 में महात्मा गांधी का नमक आंदोलन चल रहा था तो उस वक्त 8 अप्रैल को इंदिरा गांधी ने अपनी मां कमला नेहरू के साथ इस आंदोलन में रायबरेली में हिस्सा लिया. रायबरेली से इंदिरा का यह पहला संपर्क था. 1967 में इंदिरा ने यहां से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. इसके पहले 1952 में हुए पहले आम चुनाव में उनके पति फिरोज गांधी ने भी इस सीट पर जीत हासिल की थी. उन्होंने इस सीट का प्रतिनिधित्व 1960 तक किया. अमेठी से संजय और राजीव गांधी ने भी लोकसभा का चुनाव जीता. सिर्फ 1977 का आम चुनाव ही ऐसा था जब इस इलाके ने गांधी परिवार को खारिज किया. उस चुनाव में रायबरेली से इंदिरा और अमेठी से संजय गांधी को हार का मुंह देखना पड़ा था.

2012 में कांग्रेस के उम्मीदवारों के जरिए गांधी परिवार को खारिज किए जाने की कई वजहें हैं. इस बारे में रायबरेली के पंकज पांडे कहते हैं, ‘इस परिवार के लोग आजादी के बाद से ही यहां से चुनाव जीतते रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद अब तक किसी ने यहां कोई छोटा-सा भी घर नहीं बनाया. इससे यहां के लोगों को लगने लगा है कि ये लोग इस क्षेत्र का इस्तेमाल बस चुनावी जीत के लिए करते हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘इन दोनों जिलों के कांग्रेस के विधायकों का प्रदर्शन अच्छा नहीं था. पहले गांधी परिवार की अपील पर लोग किसी को भी वोट दे देते थे लेकिन अब स्थिति बदल रही है. पूरे प्रदेश की तरह इन दोनों जिलों में भी कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा बिखर चुका है. केएल शर्मा की अगुवाई में राजीव गांधी ट्रस्ट के कुछ लोग इन दोनों जिलों के उम्मीदवारों का चयन करते हैं. सोनिया गांधी जब यहां आती हैं और उस दौरान लोग जो भी आवेदन उन्हें देते हैं वे सब वह केएल शर्मा को दे देती हैं मगर शर्मा इन पर कोई कार्यवाही नहीं करते.
इससे लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं.’

अमेठी और रायबरेली में चुनाव प्रचार के दौरान जो भाषण उन्होंने दिए, अगर उन पर ध्यान दिया जाए तो उससे साफ होता है कि राजनीतिक परिपक्वता के लिए अभी उन्हें लंबा सफर तय करना है. चुनावों में जिसकी हार स्पष्ट नजर आती है वह भी आम तौर पर नतीजे आने के ठीक पहले तक खुद को ही संभावित विजेता के तौर पर प्रस्तुत करता है. लेकिन अमेठी में प्रियंका जो बोल रही थीं उससे लग रहा था कि वे नतीजे की बात तो दूर, चुनाव से पहले ही हार मान चुकी हैं. अमेठी के टिकरमाफी गांव में एक सभा को संबोधित करते हुए प्रियंका का कहना था, ‘इस चुनाव में नहीं तो हमें अगले चुनाव में बल मिलेगा.’ जाहिर है कि इससे न सिर्फ कांग्रेस के उम्मीदवारों का बल्कि कार्यकर्ताओं का भी मनोबल टूटा होगा. हालांकि, राशिद किदवई कहते हैं, ‘अमेठी और रायबरेली में प्रियंका की नाकामी के बावजूद पार्टी में ऐसे नेता हैं जो मानते हैं कि अगर प्रियंका जमकर चुनाव प्रचार करती हैं तो उनकी वजह से लोक सभा चुनावों में कांग्रेस की 15-20 सीटें बढ़ सकती हैं.’
राजनीति में आने को लेकर प्रियंका की औपचारिक अनिच्छा के बावजूद इस बात को लेकर राजनीतिक जानकारों की आम दावा है कि वे सही समय का इंतजार कर रही हैं. लेकिन अब तक प्रियंका ने न तो अपने किसी भाषण से या न ही किसी सार्वजनिक मंच या मीडिया के किसी माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि भारत के भविष्य को लेकर उनके विचार क्या हैं. भारत के विकास को लेकर उनकी राय क्या है. मणिशंकर अय्यर इस पर प्रियंका का बचाव करते हैं, ‘प्रियंका को राजनीति की गहरी समझ है. आपको यह ध्यान में रखना चाहिए कि शुरुआती दिनों में प्रियंका की मां सोनिया से अधिक अराजनीतिक कोई नहीं था लेकिन उन्होंने तेजी से राजनीति को समझा. प्रियंका सिर्फ दिखने के मामले में इंदिरा जी जैसी नहीं हैं बल्कि और भी कई मामलों में उनके जैसी हैं.’    l

मेनका गांधी और वरुण गांधी

कभी संजय गांधी भारतीय राजनीति और खास तौर पर कांग्रेस के सबसे ताकतवर केंद्र थे. आज उनकी पत्नी मेनका गांधी और बेटे वरुण गांधी राजनीति में तो हैं लेकिन कांग्रेस की नहीं बल्कि भाजपा की राजनीति कर रहे हैं. संजय के बड़े भाई राजीव गांधी की पत्नी को कुछ लोग देश का सुपर प्रधानमंत्री कहते हैं और उनके बेटे को प्रधानमंत्री पद का दावेदार लेकिन न तो मेनका गांधी ही भाजपा में किसी बड़ी भूमिका में हैं और न ही उनके पुत्र वरुण गांधी.

इंदिरा गांधी के दौर में उनके दोनों बेटों में से राजनीति में सक्रिय होने का फैसला पहले उनके बड़े बेटे राजीव गांधी ने नहीं बल्कि संजय गांधी ने किया था. कुछ ही समय में संजय इतने ताकतवर हो गए कि कहा जाने लगा कि इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे की मुट्ठी में हैं. यही वह दौर था जब यह कहा जाने लगा कि सरकार प्रधानमंत्री कार्यालय से नहीं बल्कि प्रधानमंत्री आवास से चल रही है. 1974 में संजय की शादी मेनका गांधी से हुई. 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया तो इसका असली गुनहगार भी संजय को ही बताया गया. जब आपातकाल हटा तो इंदिरा गांधी की छवि ठीक करने को बीड़ा भी मेनका गांधी ने ही उठाया. उन्होंने साप्ताहिक समाचार पत्रिका सूर्या में इंदिरा गांधी का लगातार इंटरव्यू प्रकाशित करके उनके प्रति लोगों की धारणा बदलने की कोशिश की. उस वक्त की राजनीति को

करीब से देखने वाले लोग बताते हैं कि इंदिरा गांधी मेनका को काफी पसंद करती थीं. कई बार वे चुनाव प्रचार के लिए भी मेनका को अपने साथ ले जाती थीं. इसी बीच मेनका और संजय के बेटे वरुण का जन्म 1980 में हुआ. वरुण का नाम भी इंदिरा गांधी ने ही रखा था. संजय तो बेटे का नाम अपने पिता के नाम पर फिरोज रखना चाहते थे. वरुण के जन्म के कुछ ही महीने बाद संजय गांधी की मौत एक हवाई दुर्घटना में हो गई. इंदिरा की दुलारी रही मेनका को संजय गांधी की मौत के तकरीबन तीन साल बाद अपमानजनक तरीके से इंदिरा गांधी का घर छोड़कर निकलना पड़ा. उन्होंने न सिर्फ घर छोड़ा बल्कि कांग्रेस से अलग राह भी बना ली. इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय संजय मंच के नाम से पार्टी बनाई.

1984 का लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए उन्होंने अपने पति संजय गांधी की सीट अमेठी को चुना. लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान इंदिरा गांधी की हत्या हो गई और राजीव गांधी मेनका के खिलाफ चुनाव में उतरे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उभरी सहानुभूति की लहर की वजह से राजीव को यहां जबरदस्त जीत हासिल हुई. 1988 में मेनका ने अपनी पार्टी का विलय जनता पार्टी में कर लिया और पार्टी महासचिव बन गईं. मेनका जनता पार्टी सरकार और भाजपा की सरकार में मंत्री भी रही हैं. भाजपा की औपचारिक सदस्यता नहीं होने के बावजूद वे वाजपेयी सरकार में मंत्री थीं. 2004 में वे औपचारिक तौर पर भाजपा में शामिल हुईं. उनके साथ उनके पुत्र वरुण गांधी भी भाजपा में 2004 में ही शामिल हुए. 2009 में मेनका ने अपनी सीट पीलीभीत से अपने बेटे वरुण गांधी को उतारा और खुद आंवला से जीतकर आईं. वरुण को भी जीत हासिल हुई.

लेकिन आज मां-बेटे दोनों की सियासत उलझी हुई लग रही है. मेनका गांधी को पार्टी ने कोई अहम जिम्मेदारी नहीं दी है. महिला मोर्चा का काम भी स्मृति ईरानी को दे रखा है. भाजपा अध्यक्ष मीनाक्षी लेखी को पार्टी के मामलों में अधिक तरजीह देते हुए दिख रहे हैं. राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अलावा मेनका गांधी भाजपा के किसी कार्यक्रम में भी आम तौर पर नहीं दिखतीं. पर्यावरण के मामले में विशेषज्ञता होने के बावजूद पार्टी तब भी मेनका गांधी को आगे नहीं करती जब इससे संबंधित किसी विषय पर सरकार पर हल्ला बोलने की जरूरत होती है. पार्टी के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि रोज-रोज की राजनीति में मेनका गांधी की बहुत दिलचस्पी भी नहीं है. लेकिन अगर कोई राजनीति में है और उसे पार्टी कोई बड़ी जिम्मेदारी देती है तो उसे अच्छा लगता है. मेनका जी के मामले में पार्टी के कई नेता यह मानते हैं कि अगर केंद्र की सत्ता में भाजपा आई तो उन्हें मंत्री तो बनाया ही जाएगा.’

राहुल गांधी की तुलना में ऐसी ही हालत वरुण गांधी की भी है. एक भाई प्रधानमंत्री पद की दौड़ में है तो दूसरे की चुनौती अपनी लोकसभा सीट बचाने की है. पार्टी के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘जब वरुण आए थे तो उनसे न सिर्फ पार्टी को बल्कि ऐसा लग रहा था कि युवाओं को भी काफी उम्मीदें हैं. लेकिन 2009 के चुनावों में जिस तरह का आपत्तिजनक भाषण देने का आरोप लगा उससे उनकी छवि को धक्का लगा.’ पार्टी के लोग बताते हैं कि वरुण को भाजपा में बड़ी जिम्मेदारी देने की बात चल रही थी लेकिन यह योजना उनके भाषण की वजह से खटाई में पड़ गई. भाजपा के कुछ लोग यह भी बताते हैं कि वरुण की दिलचस्पी भारतीय जनता युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनने में थी लेकिन पार्टी ने उनके इस प्रस्ताव को नहीं माना. कहने को उनके पास संगठन में सचिव का पद है लेकिन पार्टी उन्हें अपने मंच से बोलने का मौका भी नहीं देती. वरुण गांधी के बाद आए कई युवा नेताओं को भाजपा में बढ़ाया जा रहा है लेकिन कोई बड़ी जिम्मेदारी वरुण को नहीं मिल रही. वरुण के साथ काम कर चुके एक सज्जन कहते हैं, ‘उनकी राजनीतिक तरक्की की राह की सबसे बड़ी बाधा उनका व्यवहार है. आम तौर पर राजनीति करने वाले लोग मित्र बनाने में यकीन करते हैं. किसी से नाराज होने पर भी उसके सामने अपनी नाराजगी नहीं जाहिर करते. लेकिन वरुण ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने न सिर्फ कई नेताओं को नाराज किया है बल्कि इसी वजह से वे अपने कई सहयोगियों को भी खो चुके हैं.’ जो लोग पीलीभीत की राजनीति को जानते हैं, उनका कहना है कि अगले आम चुनाव में वरुण के लिए अपनी सीट निकालना मुश्किल साबित होने जा रहा है.